विज्ञान से आगे है परंपरागत योग

विज्ञान से आगे है परंपरागत योग

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। योगमय जीवन से सबको सुख-समृद्धि औऱ उत्तम स्वास्थ्य मिले। मैं इस कॉलम में मुख्य रूप से परंपरागत योग को आधुनिक विज्ञान से मिले अनुमोदन का विश्लेषण करके आप सब तक पहुंचाता हूं। वैज्ञानिक युग में हम सबको पौराणिक चीजों के वैज्ञानिक अनुमोदन से बड़ी आश्वस्ति मिलती है। पर इस तरह की आश्वस्ति वाली प्रवृति पर सवाल भी खड़े होते रहते हैं। अक्सर बहस होती है कि क्या योग को विश्वव्यापी स्वीकृति और प्रतिष्ठा पाने के लिए आधुनिक विज्ञान का अनुमोदन पाना चाहिए? दूसरे शब्दों में विज्ञान की कसौटी पर कसकर ही योग पर भरोसा करना चाहिए?

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पश्चिमी देशों में योग विभिन्न रूपों में बेहद लोकप्रिय है। पर वे उसे तभी आत्मसात करते हैं, जब विज्ञान गवाही देता है कि हां, यह सही है। अब ऐसी ही हवा भारत में भी बह रही है। यद्यपि भारत में परंपरागत योग के कई संस्थानों की ओर से दुनिया भर के मेडिकल और अन्य शोध संस्थानों के सहयोग से योग के विभिन्न आयामों पर एक सौ वर्षों से ज्यादा समय से अनुसंधान किए जाते रहे हैं। महाराष्ट्र के लोनावाला में कैवल्यधाम योग संस्थान के स्थापक स्वामी कुवल्यानंद ने सन् 1920 में ही अपने ही शरीर पर योग के प्रभावों का वैज्ञानिक अनुसंधान करना प्रारंभ कर दिया था। बावजूद, परंपरागत योग के संन्यासियों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसे बिना योग पर भरोसा न करने की बात अटपटी लगती है। 

परंपरागत योग के संन्यासी कहते हैं कि योग की वैज्ञानिक पद्धति जरूर होनी चाहिए। पर सदियों की आत्मानुभूतियों से योग के जो परिणाम मिले हैं, उन्हें आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसे बिना स्वीकार्यता न मिले, यह चिंताजनक है। वे ऐसे सवालों के जबाव में सवाल करते हैं कि अब तक योग विज्ञान पर जितने भी शोध हुए हैं, सबके नतीजे वषों-वर्षों से प्राप्त नतीजों से भिन्न हुए हैं क्या? यदि नहीं तो अविश्वास का आधार क्या है? फिर इस बात की क्या गारंटी कि विज्ञान जो कह रहा है वही सत्य है। दुनिया में एक ही विषय पर समय-समय पर कई शोध हुए और कई बार पहले के शोध से उलट परिणाम आ गए। दवा निर्माता कंपनियों की ताकतवर लॉबी अपने धंधे चमक बनाए रखने के लिए सुविधानुसार विभिन्न शोधों को किस तरह प्रभावित करती है, यह किससे छिपी है?

याद कीजिए कि विभिन्न शोधों के आधार पर रिफाइंड खाद्य तेल का कितना प्रचार हुआ था। हृदय रोग से बचाव में उसकी महती भूमिका बतलाई गई थी। पर अंत में कसौटी पर खड़ा उतारा है सदियों से आजमाया हुआ शुद्ध कच्ची घानी सरसों तेल। इंग्लैंड के यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के ई अर्नेस्ट ने तो 2013 में ही अपने अध्ययन रिपोर्ट में लिखा था कि अनेक संस्थानों के योग ट्रायल को और भी प्रमाणिक बनाने की जरूरत है। इसलिए कि उनके अध्ययन के पैमाने में अनेक खामियां होती हैं। सच तो यह है कि योग के अनेक चमत्कारों से विज्ञान भी चमत्कृत है और शोध इस बात को लेकर हो रहा है कि यह चमत्कार होता किस तरह है। जैसे, मनोकायिक बीमारियों में शिथलीकरण के अभ्यासों में योगनिद्रा और अजपा जप के चमत्कारिक प्रभाव जगजाहिर है। मनोकायिक बीमारियां ठीक हो जा रही हैं। पर पश्चिम के देशों के वैज्ञानिक इन चमत्कारों को टुकड़ो में बांटकर शोध करते रहते हैं। बावजूद मेडिकल साइंस को मन के शर्तिया इलाज का सूत्र नहीं मिल पाया है।

भारत में ही अठारह साल से उपर के 15 फीसदी लोग किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारियों से पीड़ित हैं। दो साल पहले ही मानसिक स्वास्थ्य पर राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण हुआ था। यह सर्वेक्षण भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से बेंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (नीमहांस) ने कराया था। उससे चौंकाने आंकड़े सामने आए।  जर्मनी सहित पश्चिम के कई देशों में चिकित्सा के साथ ही योगनिद्रा या शिथलीकरण के अन्य अभ्यासों की बदौलत मनोरोग का इलाज किया जाता है और आशातीत सफलता भी मिल रही है। पर अपने देश में चिकित्सक शायद ही इस तरह की योगा थेरेपी की सलाह देते हैं। विधि विषयों के लेखक फैजान मुस्तफा और जगतेश्वर सिंह सोही के मुताबिक 2017 में एक अध्ययन से पता चला था कि योगाभ्यासों के जरिए बीमारियों से लाभ पाने में जुटे लोगों में से मात्र 11-20 फीसदी लोगों को ही उनके चिकित्सक ने योग करने की सलाह दी थी।

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यह निर्विवाद है कि विज्ञान नहीं था, तब भी योग था। प्राचीन काल के योगी योगाभ्यासों से प्राप्त अनुभूतियों के आधार पर ही खुद को स्वस्थ रखते थे और यह ज्ञान अपने शिष्यों को बांटते थे। आधुनिक काल में भी अनेक योगी हुए जिन्होंने न किसी स्कूल-कालेज में योग सीखा और न ही पुस्तकों लेकर अध्ययन किया। उन्होंने आत्मानुभूतियों की बदौलत भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में योग का प्रचार-प्रसार किया। उनमें स्वामी कुवल्यान्द से लेकर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद तक शामिल हैं।

प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन की ओर से विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली व प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में शामिल हो चुके पद्मविभूषण वीकेएस अयंगार योग की विलक्षण प्रतिभा की बदौलत अमर हो चुके हैं। कर्नाटक में धारवाड़ स्थित कर्नाटक कॉलेज में महज अठारह साल की उम्र से योग सीखाने के साथ ही योग प्रशिक्षक के तौर पर अपना कैरियर शुरू करने वाले (दिवंगत) अयंगार के साथ शुरूआती दिनों में ही अद्भुत घटना हुई थी। उन्होंने अपनी पुस्तक “द पाथ टू होलिस्टिक हेल्थ” में लिखा है, “योग के विषय में अभी बालक था। खड़ा होना सीख रहा था। तभी एक दंपति मिले। उनकी समस्या थी कि शादी के दस वर्षों बाद तक संतान नहीं हुई थी। मिलते ही सवाल किया कि क्या योगाभ्यास से कुछ हो पाएगा? योग में जितना ज्ञान था, उसके आधार पर भरोसा था कि ऐसा संभव है। मैंने उत्तर दिया – हां, कुछ हो सकता है। यकीन मानिए कि योगाभ्यास से उनकी मनोकामना पूरी हो गई थी।“

अयंगार ने अपनी विलक्षण प्रतिभा की बदौलत अयंगार योगा को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। उनके योग का आधार भी महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग ही था। वे जब स्लिप डिस्क, साइटिका, कमर दर्द आदि के इलाज के लिए शल्य चिकित्सा के मुहाने पर जा चुके मरीजों को योगाभ्यासों की बदौलत बिना सर्जरी के ही चंगा करने लगे तो पश्चिम के विज्ञान जगत के कान खड़े हुए। फिर तो उनके योगाभ्यासों के तौर-तरीकों पर कई शोध किए गए । सबमें अयंगार योग का प्रकारांतर से अनुमोदन ही हुआ। अब तो हमारे ईर्द-गिर्द भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं।

दिल्ली में एक युवा योग गुरू हैं। बिहार योग विद्यालय से प्रशिक्षित और कॉरपोरेट जगत में खासे लोकप्रिय। उनकी साइट पर या फेसबुक पेज पर स्लिप डिस्क, साइटिका, कमर दर्द, सर्वाइकल स्पॉडिलाइसिस आदि से कभी पीड़ित रहे देश-विदेश के लोगों के संस्मरण भरे पड़े हैं। सबकी एक ही कहानी कि वे शारीरिक रूप से निर्बल हो चुके थे। कुछ को शल्य चिकित्सा की सलाह मिल चुकी थी। पर शिवचित्तम मणि ने जो योगाभ्यास कराए, उससे निरोग हो गए। इन दृष्टांतों से पता चलता है कि दुनिया में बिना सर्जरी के या अन्य तरीकों से जिन बीमारियों से मुक्ति के उपाय नहीं मिले थे और विभिन्न स्तरों पर शोध किए जा रहे थे, उन बीमारियों से भी परंपरागत योग से प्राप्त अनुभवों के आधार पर कराए गए योगाभ्यासों की बदौलत मुक्ति मिलती रही है।

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योग को लेकर तमाम बहसों के बीच एक नई बहस की शुरूआत हुई है, जो परंपरागत योग के संन्यासियों की आशंका को बल प्रदान करती हैं। पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल एडुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) चंडीगढ़ के ईएनटी विभाग के अध्यक्ष अतुल कुमार गोयल ने योग पर अपनी अध्ययन रिपोर्ट में भारत में योग के क्लीनिकल ट्रायल में वैश्विक मानदंड अपनाए जाने की वकालत की है। उस रिपोर्ट के मुताबिक नैदानिक योग परीक्षणों में  नैतिक विचारों, प्रमाणित योग प्रशिक्षकों, धार्मिक चिंताओं, कानून और कानून के संदर्भ में मानकों की काफी कमी है। इन सारी बातों का लब्बो-लुआब यह कि योग पर प्रमाणिक तरीके से अनुसंधान जारी रहे। पर सदियो से आजामाए हुए परंपरागत योग को विज्ञान की स्वीकृति मिलने की प्रत्याशा में उसे अपने जीवन का आधार बनाने में हिचकिचाहट बुद्धिमानी नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

 

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